सोमवार, 9 नवंबर 2009

मंजिल

रात के अंधेरे में
मद्धम रौशनी की लोः
धर्कते दिल को क्या सिला देती हे।

कुछ अनकहे सवाल उठते हे
मासूम सी हरकतों के बीच
उम्मीद की किरण
वादों के काफिले लिए
दरवाजे तक पहुँच जाती हे
कर देती हे मजबूर हमें
नेयेती के संग चले जाने को।

दिल की गहराएयो को छू कर
भीनी सी खुशबू सुकून देती हे।
हम भीगी पलकों के सहारे
कुछ -कुछ सोचते हुए
चुपचाप मंजिल की ओर चल देते हे।

डॉ किरण बाला

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