'कल्पना की उड़ान'
धरा को चुमते
नभ को निहारते
मन ही मन सोचते
हम यु ही कुछ खोजते।
आज हवाए कुछ और हे
जीवन की फिजाये कुछ और हे
रफ्ता -रफ्ता करते
कुछ कभी समझते
chnd lamho kee jhalak
samander me motio kee chamak
pratibimb chandrma ka
prakash sitaro ka
shikhir kee doori ko
pawan kee teji se
pal me ghta ke melo se
kuch hi kshan me pate
yeh sunder kalpana he
man ka sunehla sapna he
kab kabhee milta he
bas yahi dekhna he.
dr kiran bala
शुक्रवार, 28 अगस्त 2009
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कब कभी मिलता है
जवाब देंहटाएंबस यही देखना है .
बहुत खूब