रविवार, 6 सितंबर 2009

कल की और

'कल की और '

ढूंढ रहे हे हम उसको
जो पता नही खो गया कही।

यादों की भीनी खुशबु
आज यहाँ कब आ जाए।

सोच रहे हे कैसे चलना
मंजिलं को पाने की और।

भूले बिसरे मन के मोती
संभल गए अब कल की और

डॉ किरण बाला

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें