'कल की और '
ढूंढ रहे हे हम उसको
जो पता नही खो गया कही।
यादों की भीनी खुशबु
आज यहाँ कब आ जाए।
सोच रहे हे कैसे चलना
मंजिलं को पाने की और।
भूले बिसरे मन के मोती
संभल गए अब कल की और
डॉ किरण बाला
रविवार, 6 सितंबर 2009
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