"आशियाना"
कभी कितने लाचार,
हम ख़ुद को पाते।
सब समझते सोचते,
फिर भी खो जाते।
बहुत रंजोगम में खड़े हुए,
अब हेःगिरते, फिर संभल जाते।
यह तोः आशियाना हेः , ऊँचा नीचा,
कभी ना कही , पग डगमगाते।
सहज -सहज कर , चलते हेः चलना,
फूलो की बेला में काँटों को पाते।
डॉ किरण बाला
गुरुवार, 23 जुलाई 2009
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें