"कवि की कल्पना –भूकंप के बाद"
हमने जब मुस्कुराहतो को ढलते देखा,
खिले हुए बागीचो को उजड़ते देखा,
तो सोचा —ये कल,
शायद फिर आयेगा।
उजड़ा हुआ चमन,
फिर से खिल जाएगा।
फिर से होगा,
इक सुंदर प्रभात्त,
तब मिल सकेगे,
कल और आज।
लेकिन,
बेरहमी से उजड़ी बस्ती,
क्या फिर से बस जायेगी।
लहू -लुहान धरती,
क्या फिर उभर पायेगी
जो अपने थे कभी,
क्या वो मिलेगे हमें।
टूटे हुए दिल,
क्या फिर मुस्कुरायेगे।
मगर बीता कल,
तो बस कल्पना में ही लौटता हे,
बुझा दीपक,
सपनो में ही जलता हे।
कही हो कवि की कल्पना,
और लेखनी का कमाल,
तो फिर देखेंगे,
इस जग में,
तूफानी 'इन्कलाब'।
जब बीता कल,
फिर से लौट आयेगा,
उजड़ा हुआ संसार
फिर से बस जाएगा।
डॉ किरण बाला
शनिवार, 25 जुलाई 2009
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