बुधवार, 22 जुलाई 2009

जीवन की किश्ती 63

'जीवन की किश्ती'

हम रहे किश्ती में बेठे देखते
दुसरे फूलो को आकर ले गए।

उलझनों में उलझ कर हम रह गए
सोचते थे, कुछ, कभी कुछ कह गए।

बंद ना होगा कभी यह सिलसिला
आँसुओ को रोकना मुश्किल हुआ।

हे तमाशा हो रहा, हर और अब
आज हम, कल के लिए, क्यो खो गए।

वक्त कुछ करने को, अब भी, पास हे
रौशनी की भी, अभी कुछ आस हे
हौसले को छोड़ मत, आज तू
कामयाबी अब तुम्हारे साथ हे।

डॉ किरण बाला

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