"जीवन के पड़ाव"
कभी छोटे थे हम
हँसते रोते थे हम
दुनिया-दारी की कुछ भी ख़बर ना थी।
जीवन चलता रहा
वक्त ढलता रहा
जिम्मेदारी हमारी बड़ती गयी।
जब से आए यहाँ
कुछ -कुछ जाना समां
धीरे -धीरे उमरिया बड़ती गयी।
दूर कितने चले
और कब तक यहाँ
इसका कुछ भी तो हमको पता नही।
कल सुनते थे
आज सुनाते हे हम
परसों कोई ना सुनने वाला होगा
खुशिया ज़रा -ज़रा जाती रही
आख़िर ना कोई, रोने वाला होगा।
चंद शब्दों को
चंद लम्हों को
बस दिल की किताब में बंद किया
कब भी जाना हो
दिल बेगाना हो
अब तो, उसका बस, हिसाब किया ।
डॉ किरण बाला
बुधवार, 22 जुलाई 2009
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें